एक साम्राज्य की राजधानीविजयनगर (लगभग चौदहवीं से सोलहवीं सदी तक ) AN IMPERIAL CAPITAL: VIJAYANAGAR (C. FOURTEENTH TO SIXTEENTH CENTURY)
विजयनगर का संक्षिप्त विवरण (Brief Description of Vijayanagara)
विजयनगर अथवा “विजय का शहर” एक शहर और एक साम्राज्य दोनों के लिए प्रयोग किया जाने वाला था। इस साम्राज्य की स्थापना 14वीं शताब्दी में हुई थी। इसका सबसे बड़ा विस्तार उत्तर में कृष्णा न लेकर प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण तक था।
1565 ई० में विजयनगर साम्राज्य पर आक्रमण हुआ और इसे लूटा गया। बाद में यह उजड़ गया। 17वीं -18वीं शताब्दियों तक यह पूरी तरह से नष्ट हो गया। फिर भी कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब क्षेत्र के लोगों की स्मृतियों में यह हंपी के नाम से जीवित रहा। इस नाम का प्रचलन यहाँ की स्थानीय मातृदेवी पंपादेवी के नाम से हुआ था।
हंपी के भग्नावशेष 1800 ई० में एक अभियंता एवं पुराविद कर्नल कॉलिन मैकेंजी के प्रयत्नों से प्रकाश में आए। उन्होंने इस स्थान का पहला सर्वेक्षण मानचित्र तैयार किया। उनकी आरंभिक जानकारियाँ विरुपाक्ष मंदिर तथा पंपादेवी के पूजास्थल के पुरोहितों की स्मृतियों पर आधारित थीं।
माना जाता है कि विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 में दो भाइयों-हरिहर तथा बुक्का ने की थी। इस साम्राज्य की अस्थिर सीमाओं में अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले तथा अलग-अलग धार्मिक परंपराओं को मानने वाले लोग रहते थे।
विजयनगर शासकों ने अपनी उत्तरी सीमाओं पर दक्कन के सुलतानों तथा उड़ीसा के गजपति शासकों से संघर्ष किया।
14वीं से 16वीं शताब्दी के दौरान युद्धकला कुशल अश्वसेना पर आधारित होती थी। इसलिए प्रतिस्पर्धा राज्यों के लिए अरब तथा मध्य एशिया से उत्तम घोड़ों का आयात बहुत ही महत्त्व रखता था। आरंभ से इस व्यापार पर अरब व्यापारियों का नियंत्रण था। स्थानीय व्यापारी जिन्हें कुदिरई चेट्टी अथवा घोड़ों के व्यापारी कहा जाता था, भी इस व्यापार में भाग लेते थे।
1498 ई० से पुर्तगाली व्यापारी उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर आए और व्यापारिक तथा सामरिक केंद्र स्थापित करने का प्रयास करने लगे। वे बंदूकों का बहुत ही कुशलतापूर्वक प्रयोग करते थे। इस तकनीक ने उन्हें इस काल की उलझी हुई राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति बनकर उभरने में सहायता की।
विजयनगर अपने मसालों, वस्त्रों तथा रत्नों के लिए प्रसिद्ध था। ऐसे शहरों के लिए व्यापार प्रतिष्ठा का सूचक माना जाता था। यहाँ की धनी जनता में महँगी विदेशी वस्तुओं की काफ़ी माँग थी—विशेष रूप से रत्नों और आभूषणों की। दूसरी और व्यापार से प्राप्त राजस्व का राज्य की समृधि में महत्त्वपूर्ण योगदान था।
विजयनगर का पहला राजवंश संगम वंश कहलाता था। इस वंश ने 1485 ई० तक शासन किया। उन्हें सुलुवों ने उखाड़ फेंका, जी सैनिक कमांडर थे। वे 1503 तक सत्ता में रहे। इसके बाद तुलुवों ने उसका स्थान लिया। कृष्णदेव राय तुलव वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था।
कृष्णदेव राय के शासन की मुख्य विशेषता विस्तार और सुदृढीकरण था। 1512 ई० तक उसने तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के बीच के क्षेत्र (रायचूर दोआब) पर अधिकार किया। तत्पश्चात् उसने उड़ीसा के शासकों का दमन किया। 1520 ई० में उसने बीजापुर के सुलतान को भी बुरी तरह पराजित किया।
कृष्णदेव को कुछ शानदार मंदिरों के निर्माण तथा कई महत्त्वपूर्ण मंदिरों में भव्य गोपुरमों के निर्माण का श्रेय प्राप्त है। उसने अपनी माँ के नाम पर विजयनगर के समीप नगरपुरम नामक उपनगर भी बसाया।
कृष्णदेव की मृत्यु के पश्चात् 1529 में राजकीय ढाँचे में तनाव आने लगा। अतः 1542 तक केंद्र पर अरविंदु वंश का नियंत्रण स्थापित हो गया। 17वीं शताब्दी के अंत तक सत्ता पर इसी वंश का नियंत्रण बना रहा।
1565 में विजयनगर की सेना प्रधानमंत्री रामराय के नेतृत्व में राक्षसी तांगड़ी (जिसे तालीकोटा के नाम से भी जाना जाता है) के युद्ध में उतरी। यहाँ उसे बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुंडा की संयुक्त सेनाओं ने बुरी तरह हराया। विजयी सेनाओं ने विजयनगर शहर पर धावा बोलकर उसे खूब लूटा। कुछ ही वर्षों में यह शहर पूरी तरह से उजड़ गया।
वास्तव में रामराय ने एक सुलतान को दूसरे सुलतान के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास किया; परंतु हुआ इसके विपरीत। सुलतान एक हो गए और उन्होंने रामराय को एक निर्णायक युद्ध में पराजित कर दिया। इस प्रकार विजयनगर साम्राज्य के विनाश के लिए मुख्य रूप से सेनापति रामराय ही उत्तरदायी था। साम्राज्य में शक्ति का प्रयोग करने वालों में सेना प्रमुख भी शामिल थे। इन प्रमुखों को ‘नायक’ कहा जाता था। ये प्रायः तेलुगु या कन्नड़ भाषा बोलते थे।
कई नायकों ने विजयनगर के शासकों की प्रभुसत्ता के आगे समर्पण किया था परंतु वे प्रायः विद्रोह कर देते थे और इन्हें सैनिक कार्यवाही द्वारा ही दबाया जाता था।
अमर नायक प्रणाली विजयनगर साम्राज्य की एक नई राजनीतिक खोज थी। इस प्रणाली के कई तत्व संभवत: दिल्ली सल्तनत की इक्ता प्रणाली से लिए गए थे।
अमर नायक सैनिक कमांडर थे। उन्हें राज्य द्वारा प्रशासन के लिए राज्य क्षेत्र दिए जाते थे। वे किसानों, शिल्पियों तथा व्यापारियों से भू-राजस्व तथा अन्य कर वसूल करते थे। वे राजस्व का कुछ भाग व्यक्तिगत उपयोग तथा घोड़ों एवं हाथियों के निर्धारित दल के रख-रखाव के लिए अपने पास रख लेते थे और शेष भाग राजकोष में जमा करवा देते थे। उनके दल आवश्यकता के समय विजयनगर के शासकों को भी प्रभावी सैनिक सहायता प्रदान करते थे।
अंग्रेजों ने दक्षिणी प्रायद्वीप को अमरनायकों की सहायता से ही अपने नियंत्रण में लिया था।
अमर नायक राजा को वर्ष में एक बार भेंट भेजा करते थे। वे अपनी स्वामिभक्ति प्रकट करने के लिए राज-दरबार में उपहारों के साथ स्वयं उपस्थित होते थे।
विजयनगर शहर विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। अधिकांश राजधानियों को तरह यह भी एक विशिष्ट भौतिक लक्षणों तथा स्थापत्य शैली से सुसज्जित शहर था।
विजयनगर का सबसे महत्वपूर्ण भौगोलिक लक्षण यहाँ तुंगभद्रा नदी द्वारा निर्मित एक प्राकृतिक द्रोणी है। यह नदी उत्तर-पूर्व दिशा में बहती है। आस-पास के भू-दृश्य पर ग्रेनाइट की पहाड़ियों फैली है जिन्होंने शहर को चारों ओर से घेरा हुआ है। इन पहाड़ियों से कई जल-धाराएं आकर नदी में मिलती हैं। जलापूर्ति के लिए लगभग सभी धाराओं के साथ-साथ बाँध बनाकर विभिन्न आकारों के हौज बनाए गए थे।
विजयनगर के सबसे महत्वपूर्ण हौजों में एक होज़ का निर्माण 15वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में हुआ था। इसे आज कमलपुरम् जलाशय’ कहा जाता है। इस हौस के पानी से न केवल आस-पास के खेतों को सींचा जाता था बल्कि इसे एक नहर द्वारा “राजकीय केंद्र” तक भी ले जाया जाता था।
हिरिया नहर सबसे महत्वपूर्ण जल संबंधी संरचनाओं में से एक थी। इस नहर में तुंगभद्रा पर बने बोध से पानी लाया जाता था। इसका प्रयोग “धार्मिक केंद्र” से “शहरी केंद्र” को अलग करने वाली घाटी की सिंचाई करने में किया जाता था।
विजयनगर शहर की एक महत्वपूर्ण विशेषता यहाँ की एक विशाल किलेबंदी थी जिसे दीवारों से घेरा गया था। 15वीं शताब्दी में फ़ारस से कालीकाट (कोशीकोड) आए दूत अब्दुर्रज्जाक ने दुर्गा की सात पंक्तियों का उल्लेख किया है। इनके द्वारा न केवल शहर को बल्कि आस-पास के कृषि क्षेत्र तथा जंगलों को भी घेरा गया था।
सबसे बाहरी दीवार शहर के चारों ओर बनी पहाड़ियों को आपस में जोड़ती थी। इसमें गारे या जोड़ने के लिए किसी भी अन्य वस्तु का प्रयोग नहीं किया गया था। पत्थर के टुकड़े फन्नी जैसे थे, जिसके कारण वे अपने स्थान पर टिके रहते थे।
शहर की किलेबंदी की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इससे खेतों को भी घेरा गया था। अब्दुर्रज़्ज़ाक लिखता है “पहली, दूसरी और तीसरी दीवारों के बीच जुते हुए खेत, बग़ीचे तथा आवास हैं।” इसी प्रकार पेस कहता है – “इस पहली परिधि से शहर में प्रवेश करने तक की दूरी बहुत अधिक है, जिसमें खेत हैं जहाँ वे धान उगाते हैं, कई उद्यान हैं और बहुत-सा जल है जो दो झीलों से लाया जाता है।”
आज के पुरातत्वविदों ने धार्मिक केंद्र तथा नगरीय केंद्र के बीच एक कृषि क्षेत्र के साक्ष्य खोज निकाले हैं। इस क्षेत्र को एक व्यापक नहर प्रणाली द्वारा सींचा जाता था, जिसमें तुंगभद्रा से जल लाया जाता था।
मध्यकाल में कृषि क्षेत्रों को किलेबंद करने का मुख्य उद्देश्य प्रतिपक्ष को खाद्य सामग्री से वंचित कर समर्पण के लिए बाध्य करना होता था। ये घेराबंदियाँ कई महीनों और यहाँ तक कि वर्षों तक चल सकती थीं। ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए शासक प्रायः किलेबंदी क्षेत्रों के भीतर ही विशाल अन्नागारों का निर्माण भी करवाते थे।
विजयनगर की दूसरी किलेबंदी नगरीय केंद्र के आंतरिक भाग के चारों ओर बनी हुई थी और तीसरी से शासकीय केंद्र को घेरा गया था।
दुर्ग में प्रवेश के लिए सुरक्षित प्रवेश द्वार बने हुए थे जो शहर को मुख्य सड़कों से जोड़ते थे। प्रवेश द्वार स्थापत्य के विशिष्ट नमूने थे।
किलेबंद बस्ती में जाने वाले प्रवेश द्वार पर बनी मेहराब और द्वार के ऊपर बनी गुंबद संभवतः तुर्की सुलतानों की स्थापत्य कला के नमूने थे। कला-इतिहासकार इस शैली को इंडो-इस्लामिक (हिंद-इस्लामी) शैली कहते हैं।
सड़कें प्रायः पहाड़ी भू-भाग से हटकर घाटियों से होकर ही इधर-उधर घूमती थीं। सबसे महत्वपूर्ण सड़कों में से कुछ मंदिर के प्रवेश द्वारों से आगे की ओर बढ़ी हुई थीं। इनके दोनों ओर बाजार थे।
पुरातत्वविदों को कुछ स्थानों से परिष्कृत चीनी-मिट्टी मिली है। उनका विचार है कि इन स्थानों पर धनी व्यापारी रहते थे। यह मुसलमानों का आवासीय मुहल्ला भी था यहाँ स्थित मकबरों तथा मसजिदों के विशिष्ट नमूने हैं, फिर भी उनकी स्थापत्य करता हंपी में मिले मंदिरों के मंडपों के स्थापत्य से मिलती-जुलती है।
क्षेत्र के सर्वेक्षण से पता चलता है कि पूरे शहरी क्षेत्र में बहुत-से पूजा-स्थल और छोटे मंदिर थे जो विविध संप्रदायों से संबंध रखते थे। सर्वेक्षण से यह भी संकेत मिलता है कि कुएँ,बरसात के पानी वाले जलाशय तथा मंदिरों के जलाशय संभवत: सामान्य नगर-निवासियों के लिए जल के स्रोत थे।
राजकीय केंद्र बस्ती के दक्षिण-पश्चिमी भाग में स्थित था। इसे राजकीय केंद्र अवश्य कहा गया है परंतु इसमें 60 से भी अधिक मंदिर सम्मिलित थे। इससे पता चलता है कि मंदिरों और संप्रदायों को संरक्षण देना शासकों के लिए महत्त्वपूर्ण था।
राजकीय केंद्र की लगभग तीस इमारतों की पहचान महलों के रूप में की गई है। ये अपेक्षाकृत बड़ी इमारतें हैं जो धार्मिक क्रियाकलापों के लिए नहीं थीं। इन इमारतों तथा मंदिरों के बीच एक अंतर था। मंदिर पूरी तरह से राजगिरी से निर्मित थे जबकि अन्य इमारतें नष्ट प्रायः वस्तुओं से बनाई गई थीं
“राजा का भवन” नामक संरचना राजकीय क्षेत्र में सबसे विशाल है। इसके दो सबसे प्रभावशाली मंच हैं, जिन्हें “सभामंडप” तथा “महानवमी डिब्बा” कहा जाता है।
सभामंडप एक ऊँचा मंच है जिसमें पास-पास तथा निश्चित दूरी पर लकड़ी के स्तंभों के लिए छेद बने हुए हैं। इसमें इन स्तंभों पर टिकी दूसरी मंजिल तक जाने के लिए सीढ़ी बनी हुई थी।
लोटस (कमल) महल राजकीय केंद्र के सबसे सुंदर भवनों में एक है। इसे यह नाम 19वीं शताब्दी के अंग्रेज यात्रियों ने दिया था। मैकेंजी द्वारा बनाए गए मानचित्र से यह अनुमान लगाया गया है कि यह परिषदीय सदन था जहाँ राजा अपने परामर्शदाताओं से मिलता था।
राजकीय केंद्र में स्थित मंदिरों में से ‘हसार राम मंदिर’ अत्यंत दर्शनीय है। इसका प्रयोग संभवतः केवल राजा और उसके परिवार द्वारा हो किया जाता था।
शहर पर आक्रमण के पश्चात विजयनगर की कई संरचनाएँ नष्ट हो गई थीं परंतु नायकों ने महलनुमा संरचनाओं के निर्माण की परंपरा को जारी रखा। इनमें से कई भवन आज भी सुरक्षित है।
तुंगभद्रा नदी के तट से लगे विजयनगर शहर का उत्तरी भाग पहाड़ी है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार ये पहाड़ियाँ रामायण में वर्णित बाली और सुग्रीव के वानर राज्य की रक्षा करती थीं। कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार स्थानीय मातृदेवी पंपादेवी ने इन पहाड़ियों में विरूपाक्ष से विवाह के लिए तप किया था। विरुपाक्ष राज्य के संरक्षक देवता थे तथा शिव का एक रूप माने जाते थे।
संभवतः राजधानी के रूप में विजयनगर का चयन वहाँ विरुपाक्ष तथा पंपादेवी के मंदिरों के अस्तित्व से प्रेरित था। यहाँ तक कि विजयनगर के शासक भगवान विरुपाक्ष की ओर से शासन करने का दावा करते थे। सभी राजकीय आदेशों पर प्रायः कन्नड़ लिपि में “श्री विरुपाक्ष” शब्द अंकित होता था।
मंदिर स्थापत्य में कई नए तत्वों का समावेश हुआ। इनमें विशाल स्तर पर बनाई गई संरचनाएँ शामिल हैं। ये संरचनाएँ राजकीय सत्ता की प्रतीक थीं। इनका सबसे अच्छा उदाहरण रायगोपुरम् अथवा राजकीय प्रवेश द्वार थे।
मंदिरों के अन्य विशेष लक्षण मंडप तथा लंबे स्तंभों वाले गलियारे थे। ये गलियारे मंदिर परिसर में स्थित देवताओं के चारों ओर बने हुए थे।
विरुपाक्ष मंदिर के निर्माण में सैकड़ों वर्ष लगे थे। अभिलेखों से पता चलता है कि यहाँ का सबसे प्राचीन मंदिर नवी दसवीं शताब्दियों का था,परंतु विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के बाद इसका बहुत अधिक विस्तार किया गया था। मुख्य मंदिर के सामने बना मंडप कृष्णदेव राय ने अपने राज्यारोहण के उपलक्ष्य में बनवाया था। इसे सुंदर
नक्काशी वाले स्तंभों से सजाया गया था। पूर्वी गोपुरम् के निर्माण का श्रेय भी उसे ही दिया जाता है।
मंदिर के सभानगरों का प्रयोग भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए होता था। कुछ सभानगरों में देवताओं को मूर्तियाँ संगीत, नृत्य और नाटकों के विशेष कार्यक्रमों को देखने के लिए रखी जाती थीं। अन्य सभागारों का प्रयोग देवी-देवताओं के विवाह के उत्सव पर आनंद मनाने के लिए होता था। कुछ अन्य में देवी-देवताओं को झूला झुलाया जाता था। इन अवसरों पर विशेष मूर्तियों का प्रयोग होता था जो छोटे केंद्रीय देवालयों में स्थापित मूर्तियों से भिन्न होती थीं।
दूसरा प्रसिद्ध देवस्थल विट्ठल मंदिर है। यहाँ के प्रमुख देवता विट्ठल थे। उन्हें महाराष्ट्र में पूजे जाने वाले विष्णु का एक रूप माना जाता है।
मंदिर परिसरों में भी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता रथ-गलियाँ हैं जो मंदिर के गोपुरम् से सीधी रेखा में जाती है। इन गलियों का फर्स पत्थर के टुकड़ों से बनाया गया था। इनके दोनों ओर स्तंभ मंडप थे जिनमें व्यापारी अपनी दुकानें लगाया करते थे।
विजयनगर के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंकेजी द्वारा किए गए आरंभिक सर्वेक्षणों के बाद यात्रा-वृत्तांतों तथा अभिलेखों से प्राप्त जानकारी को एक साथ जोड़ा गया। 20वीं शताब्दी में यह स्थान भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण तथा कर्नाटक पुरातात्विक एवं संग्रहालय विभाग के संरक्षण में आ गया।
1976 में हंपी को राष्ट्रीय महत्व के स्थल के रूप में मान्यता मिली। तत्पश्चात् 1980 के दशक के आरंभ में विविध प्रकार के अभिलेखनों द्वारा विजयनगर से मिले भौतिक अवशेषों के व्यापक प्रलेखन से भी एक महत्वपूर्ण परियोजना आरंभ की गई। लगभग 20 वर्षों के काल में पूरे विश्व के दर्जनों विद्वानों ने इस जानकारी को इकट्ठा और संरक्षित करने का कार्य किया।
यद्यपि लकड़ी से बनी संरचनाएँ अब नष्ट हो चुकी हैं और केवल पत्थर की संरचनाएँ ही शेष बची हैं, फिर भी यात्रियों द्वारा छोड़े गए विवरण उस समय के जन-जीवन के कुछ आयामों को पुनर्निर्मित करने में सहायक होते हैं।
by Sunaina
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