किसान, ज़मींदार और राज्य कृषि समाज और मुग़ल साम्राज्य (लगभग सोलहवीं और सत्रहवीं सदी) (SIXTEENTH-SEVENTEENTH CENTURIES) Study Material
किसान, ज़मींदार और राज्य कृषि समाज और मुग़ल साम्राज्य का सारांश
– 16वीं-17वीं शताब्दी में भारत में लगभग 85 प्रतिशत लोग गाँवों में रहते थे। छोटे खेतिहर और धनी जमींदार दोनों ही कृषि उत्पादन से जुड़े थे। इससे उनके बीच सहयोग, प्रतियोगिता और संघर्ष की स्थिति बनी। खेती से जुड़े इन सभी रिश्तों से गाँव का समाज बनता था।
– मुगल राज्य अपनी आय का बहुत बड़ा भाग कृषि उत्पादन से प्राप्त करता था। इसलिए राजस्व निर्धारित करने वाले, राजस्व की वसूली करने वाले तथा हिसाब-किताब रखने वाले अधिकारी ग्रामीण समाज को नियंत्रण में रखने का पूरा प्रयास करते थे। वे चाहते थे कि खेतों की जुताई हो और राज्य को उपज से अपने हिस्से का कर समय पर मिल जाए।
– खेतिहर समाज की मूल इकाई गाँव थी जिसमें किसान रहते थे। किसान साल भर फ़सल की पैदावार से जुड़े कार्यों में जुटे रहते थे। इनमें जमीन की जुताई, बीज बोना और फ़सल पकने पर उसकी कटाई करना आदि कार्य शामिल थे। इसके अतिरिक्त वे उन वस्तुओं के उत्पादन में भी शामिल थे जो कृषि आधारित थीं जैसे कि शक्कर, तेल इत्यादि।
– खेती केवल उपजाऊ मैदानी इलाकों में ही नहीं की जाती थी। सुखी भूमि के विशाल हिस्सों से लेकर पहाड़ी भूमि पर भी खेती होती थी। इसके अतिरिक्त भूखंड का एक बहुत बड़ा भाग जंगलों से घिरा था।
– किसान अपने बारे में स्वयं नहीं लिखते थे। इसलिए 16वीं और 17वीं शताब्दी के कृषि इतिहास के लिए हमारे मुख्य स्रोत वे ऐतिहासिक ग्रंथ तथा दस्तावेज हैं जो मुग़ल दरबार की देख-रेख में लिखे गए थे।” ‘आइन-ए-अकबरी’ सबसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों में से एक है। इसे अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फ़जल ने लिखा था। खेतों की नियमित जुताई को सुनिश्चित करने, राज्य द्वारा करों की उगाही करने और राज्य एवं जमींदारों के बीच के रिश्तों के नियमन के लिए जो व्यवस्था राज्य ने की थी, उसका लेखा-जोखा इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है।
– ‘आइन’ अथवा ‘आइन-ए-अकबरी’ का मुख्य उद्देश्य अकबर के साम्राज्य का एक ऐसा रेखाचित्र प्रस्तुत करना था जहाँ एक शक्तिशाली सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल-जोल बनाकर रखता था। आइन के लेखक के अनुसार मुग़ल राज्य के विरुद्ध किसी विद्रोह या स्वायत्त सत्ता स्थापित करने के किसी प्रकार के प्रयास का असफल होना निश्चित ही था। दूसरे शब्दों में, किसानों के बारे में जो कुछ हमें आइन से पता चलता है वह मुग़ल शासन के उच्च अधिकारियों का ही दृष्टिकोण है।
– आइन के साथ-साथ हम उन स्रोतों का भी प्रयोग कर सकते हैं जो मुग़लों की राजधानी से दूर के प्रदेशों में लिखे गए थे। इनमें 17वीं तथा 18वीं शताब्दियों के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिले वे दस्तावेज शामिल हैं जो सरकार की आय की विस्तृत जानकारी देते हैं।
– ईस्ट इंडिया कंपनी के भी बहुत-से दस्तावेज हैं जो पूर्वी भारत में कृषि-संबंधों पर प्रकाश डालते हैं। इन सभी स्रोतों में किसानों, जमींदारों और राज्य के बीच समय-समय पर होने वाले संघर्षो के ब्योरे दर्ज हैं।
– मुग़लकाल के भारतीय फ़ारसी स्रोत किसान के लिए प्रायः रैयत (बहुवचन, रिआया) या मुज़रियान शब्द का प्रयोग करते हैं। किसान या आसामी जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया गया है।
– 17वीं शताब्दी के स्रोत दो प्रकार के किसानों की जानकारी देते हैं- खुद-काश्त तथा पाहि-काश्त। पहले प्रकार के किसान उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी जमीन थी। पाहि-काश्त वे किसान थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे।
– उत्तर भारत के एक औसत किसान के पास एक जोड़ी बैल और दो हल से अधिक कुछ नहीं होता था। अधिकतर किसानों के पास इससे भी कम था। गुजरात में जिन किसानों के पास 6 एकड़ तक ज़मीन थी वे समृद्ध माने जाते थे। दूसरी ओर बंगाल में एक औसत किसान की ज़मीन की ऊपरी सीमा 5 एकड़ थी। वहाँ 10 एकड़ जमीन वाले किसान को धनी माना जाता था।
– खेती व्यक्तिगत स्वामित्व के सिद्धांत पर आधारित थी। किसानों की ज़मीन उसी तरह खरीदी बेची जा सकती थी जैसे अन्य संपत्ति धारकों की।
– जमीन की अधिकता, मजदूरों की उपलब्धता तथा किसानों की गतिशीलता के कारण कृषि का लगातार विस्तार हुआ क्योंकि खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था। इसलिए चावल, गेहूँ, ज्वार इत्यादि खाद्यान्न फ़सलें सबसे अधिक उगाई जाती थीं।
– आज की भाँति मुग़लकाल में भी मानसून को भारतीय कृषि की रीढ़ माना जाता था परंतु जिन फ़सलों के लिए अतिरिक्त पानी की जरूरत थी, उनके लिए सिंचाई के कृत्रिम साधन विकसित करने पड़े।
– सिंचाई साधनों के विकास में राज्य की सहायता भी मिलती थी। उदाहरण के लिए उत्तर भारत में राज्य ने कई नई नहरे तथा नाले खुदवाए और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई। शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान पंजाब में शाह नहर इसका उदाहरण है। किसान कृषि में ऐसी तकनीकों का प्रयोग भी करते थे जो प्रायः पशुबल पर आधारित होती थी जैसे- लकड़ी का हल्का हल। इसे एक छोर पर लोहे की नुकीली धार या फाल लगाकर बनाया जाता था। ऐसे हल मिट्टी को बहुत गहरा नहीं खोदते थे जिसके कारण तेज गर्मी के महीनों में मिट्टी में नमी बनी रहती थी।
– बैलों के जोड़े के सहारे खींचे जाने वाले बरमे का प्रयोग बीज बोने के लिए किया जाता था परंतु बीजों को अधिकतर हाथ से छिड़ककर ही बोया जाता था। मिट्टी की गुड़ाई और निराई के लिए लकड़ी के मूठ वाले लोहे के पतले धार काम में लाए जाते थे।
– खेती मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान की जाती थी एक खरीफ़ (पतझड़ में) और दूसरी रबी (वसंत में)। सूखे इलाकों और बंजर जमीन को छोड़कर अधिकतर स्थानों पर साल में कम-से-कम दो फसलें उगाई जाती थीं। जहाँ वर्षा या सिंचाई के अन्य साधन उपलब्ध थे, वहाँ साल में तीन फ़सलें भी उगाई जाती थीं।
– स्त्रोतों में प्राय: जिन्स-ए-कामिल जैसे शब्द मिलते हैं जिसका अर्थ है- सर्वोत्तम फसलें। मुगल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलें उगाने के लिए प्रोत्साहन देता था क्योंकि इनसे राज्य को अधिक कर मिलता था। इन फ़सलों में कपास और गन्ने की फसलें मुख्य थीं। तिलहन (जैसे सरसों) और दलहन भी नकदी फसलों में शामिल थीं।
– 17वीं शताब्दी में बाहरी संसार से कई नई फसलें भारतीय उपमहाद्वीप पहुँचीं। मक्का भारत में अफ्रीका और स्पेन के रास्ते आया। टमाटर, आलू और मिर्च जैसी सब्जियाँ भी बाहर से भारत पहुँचीं। इसी तरह अनानास और पपीता जैसे फल भी बाहर से आए।
– किसान का अपनी ज़मीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता था। जहाँ तक इनके सामाजिक अस्तित्व का प्रश्न है वे एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय का अंग थे। इस समुदाय के तीन घटक थे- खेतिहर किसान, पंचायत और गाँव का मुखिया।
– जाति तथा जाति जैसे अन्य भेदभावों के कारण खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो निकृष्ठ समझे जाने वाले कामों में लगे थे, या फिर खेतों में मजदूरी करते थे। इस तरह वे गरीबी में जीवन बिताने को विवश थे।
– समाज के निचले वर्गों में जाति, गरीबी तथा सामाजिक स्थिति के बीच सीधा संबंध था। बीच के समूहों में ऐसा नहीं था। 17वीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में की गई है। इस पुस्तक के अनुसार जाट भी किसान थे परंतु जाति-व्यवस्था में उनका स्थान राजपूतों के समान नहीं था।
– पशुपालन और बागवानी में बढ़ते मुनाफे के कारण अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियों सामाजिक सीढ़ी ऊपर उठीं। पूर्वी प्रदेशों में पशुपालक तथा मछुआरी जातियाँ भी किसानों जैसी सामाजिक स्थिति याने लगी।
– गाँव की पंचायत गाँव के बुजुगों की सभा होती थी। प्रायः वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके अपनी सम्पत्ति होती थी।
– पंचायत के मुखिया को मुकद्दम या मंडल कहते थे। कुछ स्रोतों से प्रतीत होता है कि मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुगों की आम सहमति से होता था चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी जमींदार से लेनी पड़ती थी। पंचायत का मुखिया अपने पद पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुगों को उस पर भरोसा होता था। भरोसा न रहने पर बुजुर्ग उसे पद से हटा सकते थे। गाँव के आय-व्यय का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में तैयार करवाना मुखिया का मुख्य काम था। इस काम में पंचायत का पटवारी उसकी सहायता करता था।
– पंचायत का एक बड़ा काम यह देखना था कि गाँव में रहने वाले सभी समुदायों के लोग अपनी जाति की सीमाओं के अंदर रहें पूर्वी भारत में सभी शादियाँ मंडल की उपस्थिति में होती थीं। “जाति की अवहेल को रोकने के लिए” लोगों के आचरण पर नज़र रखना गाँव के मुखिया की एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी थी।
– पंचायतों को जुर्माना लगाने तथा किसी दोषी को समुदाय से निष्कासित करने जैसे अधिकार प्राप्त थे। समुदाय से बाहर निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था।
– अलग-अलग तरह के उत्पादन कार्यों में जुटे लोगों के बीच लेन-देन के रिश्ते गाँव का एक रोचक पहलू था। गाँवों में दस्तकार भी काफी संख्या में रहते थे। किसी-किसी गाँव में तो कुल घरों के 25 प्रतिशत घर दस्तकारों के थे।
– कभी-कभी किसानों और दस्तकारों के बीच अंतर कर पाना कठिन हो जाता था, क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों प्रकार के कार्य करते थे। खेतिहर और उसके परिवार के सदस्य कई प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन में भाग लेते थे। इनमें रंगरेजी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बर्तनों को पकाना, खेती के औजार बनाना या उनकी मुरम्मत करना आदि कार्य शामिल थे।
कुम्हार, लोहार, बढ़ई, यहाँ तक कि सुनार जैसे ग्रामीण, दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे। गाँव वाले इन दस्तकारों को उनकी सेवाओं के बदले अपनी फसल का एक हिस्सा दे देते थे या फिर बेकार पड़ा खेती लायक जमीन का एक टुकड़ा।
– 18वीं शताब्दी में बंगाल में ज़मींदार लोहारों, बढ़ई और सुनारों को उनकी सेवाओं के बदले “रोज का भला और खाने के लिए नकदी देते थे।” इस व्यवस्था को ‘जजमानी’ कहते थे।
– गाँवों और शहरों के बीच व्यापार के कारण गाँवों में भी नकदी लेन-देन होने लगा था। मुगलों के केंद्रीय प्रदेशों में भी कर की गणना और वसूली नकद में की जाती थी। जो दस्तकार निर्यात के लिए उत्पादन करते थे, उन्हें उनकी मजदूरी अथवा पूर्व भुगतान नकद में ही दिया जाता था। इसी तरह कपास, रेशम या नील जैसी फसलें पैदा करने वालों का भुगतान भी नकदी में ही होता था।
– गाँवों में सराफ़ बैंकर की तरह हवाला भुगतान करते थे और मुद्रा का फेर-बदल करते थे।
– मुगलकाल में महिलाएँ और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करते थे। पुरुष खेत जोतते थे तथा हल चलाते थे, जबकि महिलाएँ बुआई, निराई और कटाई के साथ-साथ पकी हुई फसल से दाना निकालने का काम करती थीं।
– सूत कातने, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करने और गूंथने तथा कपड़ों पर कढ़ाई जैसे कार्यो के काम भी महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे। किसी वस्तु का जितना अधिक वाणिज्यिकरण होता था, उस उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की माँग उतनी ही अधिक होती थी।
– प्रचलित रिवाजों के अनुसार घर का मुखिया पुरुष होता था। इस प्रकार महिला पर परिवार और समुदाय पुरुषों का नियंत्रण बना रहता था। यदि किसी महिला पर गलत रास्ते पर चलने का संदेह होता कड़े दंड दिए जाते थे।
– भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं की संपत्ति का अधिकार प्राप्त था। पंजाब से ऐसे उदाहरण मिलते हैं समीन के क्रय-विक्रय में महिलाएँ (विधवा महिलाएँ भी) संपत्ति के विक्रेता के रूप में सक्रिय भागीदारी रखती थीं वे इसे बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए स्वतंत्र थीं।
– समसामयिक रचनाएँ जंगल में रहने वालों के लिए ‘जंगली’ शब्द का प्रयोग करती हैं परंतु जंगली होने का अर्थ यह नहीं था कि ये असभ्य थे। उन दिनों इस शब्द का प्रयोग ऐसे लोगों के लिए होता था जिनका निर्वाह जंगल के उत्पादों, शिकार और स्थानांतरीय खेती से होता था। लगातार एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहना जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।
– बाहरी शक्तियाँ जंगल में कई तरह से घुसती थी, उदाहरण के लिए राज्य को सेना के लिए हाथियों की जरूरत होती थी। इसलिए जंगलवासियों से ली जाने वाली भेंट में प्रायः हाथी भी शामिल होते थे।
– शिकार अभियान मुगल राज्य के लिए गरीबों और अमीरों सहित सभी को न्याय प्रदान करने का एक माध्यम था। दरबारी इतिहासकारों के अनुसार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने दौरा करता था। इस प्रकार वह अलग-अलग प्रदेशों के लोगों की समस्याओं और शिकायतों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे पाता था।
– वाणिज्यिक खेती का प्रसार एक ऐसा बाहरी कारक था जो जंगलवासियों के जीवन को भी प्रभावित करता था। शहद, मधुमोम और लाख आदि जंगली उत्पादों की बहुत अधिक माँग थी। लाख जैसी कुछ वस्तुएँ तो 17 वीं शताब्दी में भारत से समुद्र पर होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं।
– सामाजिक कारणों से भी जंगलवासियों के जीवन में परिवर्तन आए। ग्रामीण समुदाय के “बड़े आदमियों” की तरह जंगली कबीलों के भी सरदार होते थे। कई कबीलों के सरदार धीरे-धीरे ज़मींदार बन गए। कुछ तो राजा भी बन गए। 16वीं-17वीं शताब्दी में कुछ राजाओं ने पड़ोसी कबीलों के साथ एक के बाद एक युद्ध किया और उन पर अपना अधिकार जमा लिया।
– जंगली इलाकों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरुआत हुई। कुछ इतिहासकारों ने यह भी सुझाया हैं कि नए बसे इलाकों के खेतिहर समुदायों ने जिस प्रकार धीरे-धीरे इस्लाम को अपनाया, उसमें सूफी संतों (पीर) ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी। मुग़ल भारत में जमींदारों की आय का स्रोत तो कृषि था, परंतु वे कृषि उत्पादन में प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं करते थे, वे अपनी जमीन के स्वामी होते थे। ग्रामीण समाज में ऊँची स्थिति के कारण उन्हें कुछ विशेष सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थीं।
– समाज में जमींदारों की उच्च स्थिति के दो कारण थे। उनकी जाति तथा उनके द्वारा राज्य को दी जाने वाली विशेष सेवाएँ।
– जमींदारों की समृद्धि का आधार उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन थी। इसे मिल्कियत कहते थे अर्थात् संपत्ति। मिल्कियत जमीन पर जमींदार के निजी प्रयोग के लिए खेती होती थी।
सैनिक संसाधन जमींदारों की शक्ति का एक अन्य साधन था। अधिकांश जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी थीं, जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे शामिल होते थे।
– यदि हम मुग़लकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों को एक पिरामिड के रूप में देखें तो जमींदार का स्थान सबसे ऊँचा था। अबुल फ़ज़ल लिखता है कि “उच्च जाति” के ब्राह्मण-राजपूत गठबंधन ने ग्रामीण समाज पर पहले ही अपना कड़ा नियंत्रण बना रखा था। इसमें तथाकथित मध्यम जातियों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त था। इसी तरह कई मुसलमान जमींदारों को भी।
- ज़मींदारी को पुष्ट करने की प्रक्रिया धीमी थी। यह काम कई प्रकार से किया जा सकता था।
i) नई ज़मीनों को बसाकर
(ii) अधिकारों के हस्तांतरण द्वारा
(iii) राज्य के आदेश से
(iv) भूमि खरीदकर।
यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके द्वारा अपेक्षाकृत कमजोर वर्गों के लोग भी ज़मींदारों के दर्जे तक पहुँच सकते थे। क्योंकि इस काल में जमींदारी का क्रय-विक्रय व्यापक स्तर पर होता था।
– परिवार या वंश पर आधारित जमींदारियों को सुदृढ़ बनाने में कई कारकों का हाथ था। उदाहरण के लिए राजपूतों और जाटों ने ऐसी ही रणनीति अपनाकर उत्तर भारत में जमीन को बड़ी-बड़ी पट्टियों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसी प्रकार मध्य और दक्षिण-पश्चिम बंगाल में किसान पशुचारकों (जैसे सदगोप) ने भी जमींदारियाँ स्थापित कर ली।
– जमींदारों ने कृषि योग्य जमीनों को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने खेतिहरों को खेती के उपकरण तथा धन उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में सहायता की।
– इसमें कोई संदेह नहीं कि जमींदार एक शोषक वर्ग था परंतु किसानों से उनके रिश्ते पारस्परिकता, पैतृकवाद तथा संरक्षण पर आधारित थे। यही कारण था कि 17 वीं शताब्दी में हुए कृषि विद्रोहों में ज़मींदारों को राज्य के विरुद्ध किसानों का समर्थन मिला।
– भू-राजस्व मुगल साम्राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। इसलिए कृषि उत्पादन पर नियंत्रण रखने के लिए और तेजी से फैलते साम्राज्य में राजस्व के आकलन तथा वसूली के लिए एक प्रशासनिक तंत्र का होना आवश्यक था। इस तंत्र में ‘दीवान’ की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि पूरे राज्य को वित्तीय व्यवस्था के देख-रेख की जिम्मेदारी उसी के विभाग पर थी।
– भूमि कर निर्धारित करने से पहले मुग़ल राज्य ने जमीन और उस पर होने वाले उत्पादन के बारे में विशेष सूचनाएँ इकट्ठी कीं। भू-राजस्व व्यवस्था के दो चरण थे- कर निर्धारण तथा वास्तविक वसूली।
– राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा अधिक-से-अधिक रखने की कोशिश करता था परंतु स्थानीय स्थिति को देखते हुए कभी-कभी इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं हो पाता था।
– मुगल साम्राज्य एशिया के उन बड़े साम्राज्यों में एक था जो सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में सत्ता और संसाधनों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने में सफल रहे। ये साम्राज्य थे- चीन में मिंग, ईरान में सफार्की तथा तुर्की में ऑटोमन।
– मुगलकाल में भारत के स्थलीय तथा समुद्र पार दोनों प्रकार के व्यापार में अत्यधिक विस्तार हुआ। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं के भुगतान के रूप में एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आई। इस चाँदी का एक बड़ा भाग भारत में पहुँचा। यह भारत के लिए अच्छी बात थी क्योंकि यहाँ चाँदी के प्राकृतिक भंडार नहीं थे। फलस्वरूप 16वीं से 18वीं शताब्दी के बीच भारत में धातु मुद्रा विशेषकर चाँदी के सिक्कों के प्रचलन में स्थिरता बनी रही।
– ‘आइन-ए-अकबरी’ आँकड़ों के वर्गीकरण की एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक और प्रशासनिक परियोजना का परिणाम थी। अकबर के शासन के 42वें वर्ष अर्थात् 1598 ई० में पाँच संशोधनों के बाद इसे पूरा किया गया। यह अकबर- नामा का एक भाग है जिसे तीन, जिल्दों में रचा गया। पहली दो जिल्दों में ऐतिहासिक दास्तान प्रस्तुत की गई। है। तीसरी जिल्द ‘आइन-ए-अकबरी’ अथवा ‘आइन’ को शाही नियम-कानून के सार्थक और साम्राज्य के एक राजपत्र के रूप में संकलित किया गया था।
आइन कई मामलों पर विस्तार से चर्चा करती है-
(i) दरबार, प्रशासन और सेना का संगठन।
(ii) राजस्व के स्रोत और अकबर के साम्राज्य के प्रांतों का भूगोल।
(iii) लोगों के साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक रीति-रिवाज।
आइन पाँच भागों (दफ्तरों) का संकलन है। इसके पहले तीन भाग प्रशासन का विवरण देते हैं।
(i) ‘मंजिल-आबादी’ के नाम से पहली किताब शाही परिवार और उसके रख-रखाव से संबंध रखती है।
(ii) दूसरा भाग ‘सिपह-आबादी’ है। यह सैनिक एवं नागरिक प्रशासन और नौकरों की व्यवस्था के बारे में है।
(iii) आइन का तीसरा भाग ‘मुल्क- आबादी है। यह केंद्र एवं प्रांतों के वित्तीय पहलुओं तथा राजस्व की दरों की विस्तृत जानकारी देता है। इसके अतिरिक्त इसमें बारह प्रांतों का वर्णन भी है। ‘मुल्क आबादी’ उत्तर भारत
के कृषि समाज का विस्तृत एवं आकर्षक चित्र पेश करती है।
(iv) चौथी और पाँचवीं किताबें भारत के लोगों के धार्मिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक रीति-रिवाजों से संबंध रखती हैं। इनके अंत में अकबर के “शुभ वचनों” का एक संग्रह भी है।
– ‘आइन’ पूरी तरह दोष-रहित नहीं है। जोड़ करने में कई गलतियाँ पाई गई हैं। ऐसा माना जाता है कि या तो ये अंकगणित की छोटी-मोटी चूक है या फिर नकल उतारने के दौरान अबुल फ़ज़ल के सहयोगियों की भूल। आइन की एक और सीमा यह है कि इसके संख्यात्मक आँकड़ों में विषमताएँ हैं। सभी सूबों से आँकड़े समान रूप से एकत्रित नहीं किए गए।
– अपनी इन सीमाओं के बावजूद ‘ आइन’ अपने समय के लिए एक असाधारण और अनोखा दस्तावेज है। मुगल साम्राज्य के गठन एवं उसकी संरचना की आकर्षक झलकियाँ दिखाकर और साथ ही लोगों एवं उत्पादों के बारे में आँकड़े देकर अबुल फ़ज़ल मध्यकालीन इतिहासकारों से कहीं आगे निकल गए।
– भारत के लोगों और मुगल साम्राज्य के बारे में विस्तृत जानकारी देकर आइन ने स्थापित परंपराओं को पीछे छोड़ दिया और इस तरह 17वीं शताब्दी के भारत के अध्ययन के लिए एक संदर्भ बिंदु तैयार हो गया।
– जहाँ तक कृषि संबंधों का प्रश्न है, आइन के सांख्यिकीय प्रमाणों पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें मुगल साम्राज्य के लगभग सभी पक्षों के बारे में विस्तृत सूचनाएँ दर्ज हैं। इनकी सहायता से इतिहासकार समकालीन भारत के सामाजिक जीवन का इतिहास पुनः रचते हैं।