Study Material NCERT Class-12 History Chapter 6 : भक्ति-सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ) | Bhakti-Sufi Traditions

C.B.S.C NCERT Class-12 (लगभग आठवीं से अठारहवीं सदी तक ) BHAKTI-SUFI TRADITIONS CHANGES IN RELIGIOUS BELIEFS AND DEVOTIONAL TEXTS (bhakti soophee paramparaen)

भक्ति-सूफी परंपराएँ का संक्षिप्त वर्णन (Brief Description of Bhakti-Sufi Traditions)

8वीं से 18वीं शताब्दी तक के नए साहित्यिक स्रोतों में संत कवियों की रचनाएँ शामिल हैं। उन्होंने इन रचनाओं में अपने-आप को जनसाधारण की क्षेत्रीय भाषाओं में मौखिक रूप से व्यक्त किया था। इनमें से अधिकतर रचनाएँ संगीतबद्ध है। संतों के अनुयायियों की कई पीढ़ियों ने उनके मूल संदेश का न केवल विस्तार किया, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में अनावश्यक लगने वाले विचारों को उन्होंने या तो बदल दिया या फिर त्याग दिया।

इस काल की सबसे प्रभावी विशेषता संभवतः यह है कि साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही अनेक तरह के देवी-देवता दिखाई देते हैं। एक स्तर पर यह तथ्य इस बात का प्रतीक है कि विष्णु, शिव और देवी, जिन्हें अनेक रूपों में व्यक्त किया गया था, की पूजा की परंपरा न केवल जारी रही अपितु और अधिक विस्तृत हो गई।

इतिहासकारों के अनुसार यहाँ कम-से-कम दो प्रक्रियाएँ कार्यरत थीं। एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रसार की थी। इसका प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ है। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में थे। इस काल की दूसरी प्रक्रिया थी— स्त्रियों, शूद्रों तथा अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना।

देवी की आराधन (worship of goddess)

देवी की आराधना पद्धति को प्रायः ‘तांत्रिक’ नाम से जाना जाता है। तांत्रिक पूजा पद्धति उपमहाद्वीप के कई भागों में प्रचलित थी। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही शामिल हो सकते थे।

तांत्रिक पद्धति के विचारों ने शैव और बौद्ध दर्शन को भी प्रभावित किया विशेष रूप से उपमहाद्वीप के पूर्वी, उत्तरी तथा दक्षिणी भागों में आगामी सहस्त्राब्दी में इन सभी विश्वासों और आचारों का वर्गीकरण “हिंदू” के रूप में किया गया।

कभी-कभी पूजा-परंपराओं में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। वैदिक परंपरा के प्रशंसक उन सभी तरीकों की निंदा करते थे जो ईश्वर की उपासना के लिए मंत्रों के उच्चारण तथा यज्ञों के विपरीत थे। दूसरी ओर वे लोग थे जो तांत्रिक आराधना में लगे थे और वैदिक सत्ता की अवहेलना करते थे।

भक्ति परंपरा में मंदिरों में इष्टदेव की आराधना से लेकर उपासकों का प्रेमभाव में तल्लीन हो जाना शामिल था। भक्ति रचनाओं का उच्चारण अथवा गान इस उपासना पद्धति के अंश थे। वैष्णव और शैव संप्रदायों पर तो यह कथन विशेष रूप से लागू होता है।

आराधना के तरीकों के क्रमिक विकास के दौरान संत कवि ऐसे नेता के रूप में उभरे जिनके इर्द-गिर्द भक्तजनों का मेला लगा रहता था।

धर्म के इतिहासकार भक्ति परंपरा को दो मुख्य वर्गों में बाँटते हैं – सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति। प्रथम वर्ग में शिव, विष्णु तथा उनके अवतार और देवियों की मूर्त रूप (साकार) में उपासना शामिल है। निर्गुण भक्ति में अमूर्त अथवा निराकार ईश्वर की उपासना की जाती थी।

प्रारंभिक भक्ति आंदोलन तमिलनाडु के अलवारों और नयनारों के नेतृत्व में चला। अलवार विष्णु के तथा नयनार शिव के भक्त थे। वे स्थान-स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल भाषा में अपने इष्ट की स्तुति में भजन गाते थे।

अपनी यात्राओं के दौरान अलवारों और नयनारों ने कुछ पावन स्थलों को अपने इष्ट का निवास-स्थल घोषित किया। इन्हीं स्थलों पर बाद में विशाल मंदिर बनाए गए और वे तीर्थस्थल बन गए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व के

विरुद्ध आवाज उठाई। कुछ सीमा तक यह बात सत्य प्रतीत होती है क्योंकि भक्ति संत विविध समुदायों से थे, जैसे- ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान आदि।

अलवार और नयनार संतों की रचनाओं को वेदों के समान महत्त्वपूर्ण बताकर इस परंपरा को सम्मानित किया गया। उदाहरण के लिए अलवार संतों के एक मुख्य काव्य संकलन  नलयिरादिव्यप्रबंधम् का उल्लेख तमिल वेद के रूप में किया जाता था।

स्त्री भक्ति – स्त्रियों की उपस्थिति भक्ति परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। उदाहरण के लिए अंडाल नामक एक अलवार स्त्री के भक्ति गीत व्यापक रूप से गाए जाते थे और आज भी गाए जाते हैं।

एक अन्य स्त्री शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। उनकी रचनाओं को नयनार परंपरा में सुरक्षित किया गया।

तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषय-वस्तु बौद्ध और जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है। इतिहासकारों ने इस विरोध का कारण यह बताया है कि इन धार्मिक समुदायों में राजकीय अनुदान प्राप्त करने की होड़ लगी हुई थी।

शक्तिशाली चोल शासकों ने ब्राह्मणीय और भक्ति परंपरा को समर्थन दिया। उन्होंने विष्णु तथा शिव के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिए। चिदंबरम, तंजावुर और गंगैकोडाचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल शासकों की सहायता से ही बने थे। इस काल में शिव की कांस्य मूर्तियों का निर्माण भी हुआ।

नयनार और अलवार संतों का वेल्लाल कृषकों में काफी सम्मान होता था। इसलिए शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन के लिए भव्य मंदिरों का निर्माण कराया। नयनार 945 ई० के एक अभिलेख से पता चलता है कि चोल सम्राट तक प्रथम ने संत कवि अप्पा संबंदर तथा सुंदरार की धातु की मूर्तियों एक शिव मंदिर में स्थापित करवाई थी। इन मूर्तियों को एक उत्सव में एक जुलूस में निकाला जाता था।

12वीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नए आंदोलन का उद्भव हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना (1106-68) नामक एक ब्रह्मण ने किया। इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर) तथा लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए। लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्यु के बाद भक्त शिव में लीन हो जाएँगे और इस संसार में पुनः नहीं लौटेंगे। वै धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार का पालन नहीं करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं।

लिंगायतों ने जाति और कुछ समुदायों के “दूषित” होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध किया। उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धांत पर भी प्रश्नवाचक चिह्न लगाया। इन कारणों से जिन समुदायों का ब्राहृमणीय सामाजिक व्यवस्था में गौण स्थान मिला था, वे लिंगायतों के अनुयायी बन गए।

इतिहासकारों को 14वीं शताब्दी तक अलवार और नयनार संतों की रचनाओं को 14वीं शताब्दी तक अलवार और नयनार संतों की रचनाओं जैसा कोई ग्रंथ उत्तरी भारत से प्राप्त नहीं हुआ। इस संबंध में कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस काल में उत्तरी भारत में अनेक राजपूत राज्यों का उद्भव हुआ। सभी राजपूत राज्यों में ब्राहमणों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था जो गैर-धार्मिक तथा धार्मिक दोनों ही कार्य करते थे। उनकी इस प्रभुसत्ता को शायद किसी ने सीधी चुनौती नहीं दी।

अनेक नए धार्मिक नेताओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती दी और अपने विचार आम लोगों की भाषा में सामने रखें। समय के साथ-साथ इन भाषाओं ने वह रूप धारण कर लिया जिस रूप में वे आज प्रयोग में लाई जाती हैं।

दिल्ली सल्तनत की स्थापना (Establishment of Delhi Sultanate)

13वीं शताब्दी में तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। सल्तनत की स्थापना से राजपूत राज्यों तथा उनसे जुड़े ब्राहमणों का महत्त्व कम हो गया।

प्रथम सहस्त्राब्दी ईसवी में अरब व्यापारी समुद्री मार्ग से पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आते-जाते रहते थे। इसी समय मध्य एशिया से आकर लोग देश के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में बस गए। 7वीं शताब्दी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र उस संसार का अंग बन गए, जिसे प्रायः इस्लामी विश्व कहा जाता है।

711 ईसवी में मुहम्मद-बिन-कासिम नामक एक अरब सेनापति ने सिंध पर विजय प्राप्त की और उसे खलीफा के क्षेत्र में शामिल कर लिया।

सल्तनत काल में बहुत-से क्षेत्रों में शासकों का धर्म इस्लाम था। यह स्थिति 16वीं शताब्दी में मुगल सल्तनत की स्थापना तक बनी रही। 18वीं शताब्दी में कुछ क्षेत्रीय राज्य उभरे। इनमें से भी कई राज्यों के शासक इस्लाम धर्म को मानते थे।

सैद्धांतिक रूप से मुसलमान शासकों को उलमा के मार्गदर्शन पर चलना होता था। उलमा से यह अपेक्षा की जाती श्री कि वे शासन का शरिया के अनुसार चलना सुनिश्चित करवाएँ। परंतु उपमहाद्वीप में स्थिति जटिल थी क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा भाग इस्लाम धर्म को नहीं मानता था।

ज़िम्मी (संरक्षित श्रेणी के) इस्लामी शासकों के क्षेत्र में रहने वाले गैर-मुसलमान थे। ये लोग जज़िया नामक कर देते थे। बदले में मुसलमान शासक इन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। भारत में हिंदू भी जिम्मी लोगों में शामिल थे।

मुस्लिम शासक शासितों के प्रति काफ़ी लचीली नीति अपनाते थे। अनेक शासकों ने हिंदू, जैन, पारसी, ईसाई तथा यहूदी धर्म संस्थाओं को भूमि अनुदान दिए तथा कर में छूट दी। उन्होंने ग़ैर-मुस्लिम धार्मिक नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव भी व्यक्त किया।

इस्लाम धर्म के पाँच मूल सिद्धांत (Five Basic Principles of Islam)

इस्लाम धर्म के पाँच मूल सिद्धांत हैं-

(i) अल्लाह एकमात्र ईश्वर है। पैगंबर मोहम्मद उनके दूत (शाहद) हैं।

(ii) दिन में पाँच बार नमाज पढ़ी जानी चाहिए।

(iii) ख़ैरात (जकात) बाँटनी चाहिए।

(iv) रमजान के महीने में रोजे रखने चाहिए।

(v) हज के लिए मक्का जाना चाहिए।

अरब-मालाबार तट पर (केरल) बसे मुस्लिम व्यापारियों ने न केवल स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाया, बल्कि मातृकुलीयता और मातृगृहता आदि स्थानीय प्रथाओं को भी अपनाया।

मसजिदों के कुछ स्थापत्य संबंधी तत्व सभी जगह एकसमान थे, जैसे कि इमारत का मक्का की ओर संकेत करना जो मेहराब (प्रार्थना का आला) तथा मिनबार (व्यासपीठ) की स्थापना से लक्षित होता था। परंतु बहुत से तत्व ऐसे थे जिनमें भिन्नता दिखाई देती है जैसे छत और निर्माण की सामग्री।

हिंदू तथा मुसलमान जैसे शब्दों का कोई प्रचलन नहीं था। लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म-स्थान के आधार पर किया जाता था। उदाहरण के लिए तुर्की मुसलमानों को ‘तुरुष्क’ कहा गया। इसी प्रकार तजाकिस्तान से आए लोगों को ताजिक तथा फारस के लोगों को पारसीक का नाम दिया गया।

प्रवासी समुदायों के लिए अधिक सामान्य शब्द मलेच्छ था। यह नाम इस बात की ओर संकेत करता है कि वे वर्ण व्यवस्था के नियमों का पालन नहीं करते थे और ऐसी भाषाएँ बोलते थे जो संस्कृत से नहीं निकली थीं।

इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोगों का झुकाव रहस्यवाद तथा वैराग्य की ओर बढ़ने लगा। इन लोगों को सूफ़ी कहा गया। सूफ़ियों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना ( पैगंबर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की।

संस्थागत दृष्टि से सूफ़ी स्वयं को एक संगठित समुदाय खानकाह (फ़ारसी) से स्थापित करते थे। खानकाह का नियंत्रण शेख (अरबी), पीर अथवा मुर्शीद (फ़ारसी) के हाथ में होता था। वे अपने अनुयायियों (मुरीदों) की भरती करते थे और अपने वारिस (ख़लीफा) की नियुक्ति करते थे। वे आध्यात्मिक व्यवहार के नियम निर्धारित करने के साथ-साथ खानकाह में रहने वालों के आपसी संबंध और शेख तथा जनसामान्य के बीच के रिश्तों की सीमा भी निश्चित करते थे।

12वीं शताब्दी के लगभग इस्लामी जगत् में सूफ़ी सिलसिलों का गठन होने लगा। सिलसिले का शाब्दिक अर्थ है- जंजीर जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते की प्रतीक है। इस रिश्ते की पहली अटूट कड़ी पैगंबर मोहम्मद से जुड़ी है। इस कड़ी द्वारा आध्यात्मिक शक्ति और आशीर्वाद मुरीदों तक पहुँचता था। दीक्षा के लिए विशेष अनुष्ठान थे। इसमें दीक्षा पाने वाले को निष्ठा का वचन देना होता था और सिर मुँड़ाकर थेगड़ी लगे वस्त्र धारण करने पड़ते थे। पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह उसके मुरीदों के लिए श्रद्धा का स्थल बन जाती थी। इस प्रकार पीर की दरगाह पर जियारत के लिए विशेष रूप से उनकी बरसी के अवसर पर जाने की परिपाटी चल पड़ी। इस परिपाटी को उर्स (विवाह अर्थात् पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था।

कुछ रहस्यवादियों ने सूफ़ी सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नए आंदोलनों की नींव रखी। ये रहस्यवादी खानकाह का तिरस्कार करके फ़कीर का जीवन बिताते थे। उन्होंने निर्धनता और ब्रह्मचर्य को गौरव प्रदान किया। इन्हें कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी इत्यादि विभिन्न नामों से जाना जाता था।

12वीं शताब्दी के अंत में भारत आने वाले सूफ़ी समुदायों में चिश्ती सबसे अधिक प्रभावशाली थे। इसका कारण यह था कि उन्होंने न केवल अपने आपको स्थानीय परिवेश में अच्छी तरह ढाला; बल्कि भारतीय भक्ति परंपरा की कई बातों को भी अपनाया।

खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था। दिल्ली स्थित शेख, निजामुद्दीन औलिया (14वीं शताब्दी) के खानकाह में कई छोटे-छोटे कमरे और एक बड़ा हाल (जमातखाना) था। इनमें सहवासी तथा अतिथि रहते थे और उपासना करते थे। यहाँ एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना माँगी खैर) पर चलती थी।

शेख से मिलने वालों में अमीर हसन सिज़ज़ी और अमीर खुसरो जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे। इन सभी लोगों ने शेख के बारे में लिखा।

शेख निज़ामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए भेजा। इस प्रकार चिस्तियों के उपदेश, व्यवहार और संस्थाएँ तथा शेख का यश चारों ओर फैल गया। उनको तथा उनके आध्यात्मिक पूर्वजों को दरगाह पर अनेक तीर्थयात्री आने लगे।

सुफी संतों की दरगाह पर की गई जियारत (तीर्थयात्रा) पूरे इस्लामी संसार में प्रचलित है। इस अवसर पर संत के आध्यात्मिक आशीर्वाद अर्थात बरकत की कामना की जाती है। पिछले सात सौ वर्षों से भिन्न-भिन्न संप्रदायों वर्गों तथा समुदायों के लोग पाँच महान चिश्ती संतों की दरगाह पर अपनी आस्था प्रकट करते रहे हैं।

16वीं शताब्दी तक अजमेर स्थित शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह बहुत ही लोकप्रिय हो गई। इस दरगाह पर वाले तीर्थयात्रियों के भजनों ने अकबर को यहाँ आने के लिए प्रेरित किया था। अकबर यहाँ 14 बार आया था। प्रत्येक यात्रा पर वह दान भेंट दिया करता था। 1568 में उसने तीर्थयात्रियों के लिए खाना पकाने हेतु एक विशाल देश दरगाह को भेंट में दी थी। उन्होंने दरगाह के अहाते में एक मसजिद भी बनवाई।

नाच और संगीत भी जियारत का भाग थे, विशेषकर कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान, ताकि अलौकिक आनंद की भावना को उभारा जा सके। सूफी संत जिक्र (ईश्वर का नाम जाप) या फिर समा (श्रवण करना) आध्यात्मिक संगीत की महफिल द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे।

चिश्तियों ने न केवल सभा में स्थानीय भाषा को अपनाया बल्कि दिल्ली में चिश्ती सिलसिले के लोग आम बोलचाल की भाषा हिंदवी में भी बातचीत करते थे। बाबा फरीद ने भी क्षेत्रीय भाषा में काव्य-रचना की जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है।

कुछ सूफ़ियों ने लंबी कविताएँ ‘मसनवी’ लिखीं जिनमें ईश्वर के प्रति प्रेम को मानव-प्रेम के रूपक द्वारा अभिव्यक्त किया गया।

सूफ़ी कविता की एक अन्य विधा की रचना बीजापुर (कर्नाटक) के आसपास हुई। यह दक्खनी (उर्दू का कार) में लिखी छोटी कविताएँ थीं। इनकी रचना 17वीं – 18वीं शताब्दियों में इस क्षेत्र में रहने वाले चिश्ती संतों ने की थी। इस क्षेत्र के सूफ़ी संभवतः यहाँ प्रचलित भक्ति परंपरा से प्रभावित हुए थे। लिंगायतों द्वारा लिखे गए कनह के वचन और पंढरपुर के संतों द्वारा मराठी के अभंगों ने भी उन पर अपना प्रभाव डाला। इस माध्यम से इस्लाम दक्कन के गाँवों में स्थान पाने में सफल रहा।

चिश्ती संप्रदाय की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता संयम और सादगी का जीवन था जिसमें सांसारिक सत्ता से दूर रहने पर बल दिया। यदि कोई सत्ताधारी वर्ग बिना माँगे उन्हें अनुदान या भेंट देता था तो सूफी संत उसे स्वीकार कर लेते थे।

चिश्ती धन और सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे। परंतु वे इन्हें संभाल कर नहीं रखते थे, बल्कि उसे खाने कपड़े, रहने की व्यवस्था, सभा की महफिलों आदि पर पूरी तरह खर्च कर देते थे।

सूफी संतों की धर्मनिष्ठा, विद्वता और लोगों द्वारा उनकी चमत्कारी शक्ति में विश्वास उनकी लोकप्रियता के मुख्य कारण थे। इसलिए शासक भी उनका समर्थन प्राप्त करना चाहते थे।

माना जाता था कि औलिया मध्यस्थ के रूप में ईश्वर से लोगों की भौतिक और आध्यात्मिक दशा में सुधार लाने का कार्य करते हैं। संभवत: इसी कारण शासक अपनी कब्र सूफी दरगाहों और खानकाहों के निकट बना चाहते थे।

कबीर संत (Kabir Sant)

कबीर संत कवियों में विशेष स्थान रखते हैं-

कबीर की वाणी तीन विशिष्ट परिपाटियों में संकलित हैं-

(1) कबीर बीजक’ कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर संरक्षित है।

(2) कबीर ग्रंथावली’ का संबंध राजस्थान के दाद पंथियों से हैं।

(3) इसके अतिरिक्त कबीर के कई पद आदि ग्रंथ साहिब में संकलित हैं।

कबीर की रचनाएँ अनेक भाषाओं तथा बोलियों में मिलती हैं। इनमें से कुछ निर्गुण कवियों की विशेष बोली संत भाषा में है।

“जो फूल्या फूल बिन” और “समंदरि लागि आगि” जैसी रचनाएँ कबीर की रहस्यवादी अनुभवों पर प्रकाश डालती हैं। कबीर ने परम सत्य का वर्णन करने के लिए अनेक परिपाटियों का सहारा लिया। इस्लामी दर्शन की तरह वे इस सत्य को अल्लाह, ख़ुदा, हजरत और पीर कहते हैं। वेदांत दर्शन से प्रभावित होकर वे सत्य को अलख (अदृश्य), निराकार, ब्राह्मण और आत्मन कहकर भी संबोधित करते हैं।

कबीर की कुछ कविताएँ इस्लामी दर्शन के एकेश्वरवाद और मूर्तिभंजन का समर्थन करती हैं तथा हिंदू धर्म के बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का खंडन करती हैं। अन्य कविताएँ-ज़िक्र और इश्क के सूफ़ी सिद्धांतों के प्रयोग द्वारा ‘नाम सिमरन’ भी हिंदू परंपरा की अभिव्यक्ति करती हैं।

कबीर के जन्म के विषय में आज भी विवाद है कि वह जन्म से हिंदू थे अथवा मुसलमान? वैष्णव परंपरा की जीवनियों में कबीर को जन्म से हिंदू (कबीरदास) बताया गया है। परंतु उनका पालन-पोषण एक गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ जो जुलाहे थे। यह भी कहा जाता है कि कबीर को भक्ति का मार्ग दिखाने वाले गुरु रामानंद थे।

गुरु नानक देव जी (सिक्ख धर्म) (Guru Nanak Dev Ji Sikkh Dharm)

श्री गुरु नानक देव जी (1469-1539) का जन्म पंजाब के ननकाना गाँव में एक व्यापारी परिवार में हुआ। उनका संदेश उनके भजनों और उपदेशों में निहित है। इनसे पता चलता है-

(1) उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया।

(2) उन्होंने धर्म के सभी बाहरी आडंबरों का खंडन किया जैसे यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति- पूजा तथा कठोर तप

(3) उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी नकारा।

(4) उनके लिए परम पूर्ण रब (परमात्मा) का कोई लिंग या आकार नहीं था।

(5) उन्होंने रब की उपासना के लिए एक सरल उपाय बताया और वह था उनका निरंतर स्मरण व नाम का जाप।

ऐसा लगता है कि गुरु नानक देव जी किसी नए धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे। परंतु उनके देहांत के पश्चात् उनके अनुयायियों ने अपने आचार-व्यवहार को सुगठित कर एक अलग संगठन का रूप धारण कर लिया। यह संगठन सिक्ख धर्म कहलाया।

पाँचवें गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक देव जी तथा उनके उत्तराधिकारियों, बाबा फ़रीद, गुरु रविदास जी और भक्त कबीर जी की वाणी को आदिग्रंथ साहिब में संकलित किया। इस वाणी को “गुरुवाणी” कहा जाता है।

दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने नवें गुरु तेग़ बहादुर जी की रचनाओं को भी गुरुवाणी में शामिल किया और इस ग्रंथ को गुरु ग्रंथ साहिब जी कहा जाने लगा।

गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नींव डाली और उनके लिए पाँच प्रतीक निर्धारित किए- केश, कृपाण, कछहरा, कंघा और कड़ा। इस प्रकार गुरु गोविंद सिंह जी के नेतृत्व में सिख समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया।

मीराबाई (Mirabai)

मीराबाई को भक्ति लहर की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री माना जाता है। उनका विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश में कर दिया गया। उन्होंने पत्नी और माँ के परंपरागत दायित्वों को निभाने से इंकार कर दिया और विष्णु के अवतार कृष्ण को अपना एकमात्र पति मान लिया।

मीरा ने जातिवादी समाज की रूढ़ियों का भी उल्लंघन किया। ऐसा माना जाता है कि मीरा ने राजमहल के ऐश्वर्य को त्याग कर विधवा के सफ़ेद वस्त्र अथवा संन्यासिनी के जोगिया वस्त्र धारण कर लिए।

इतिहासकार (Historian)

इतिहासकार किसी धार्मिक परंपरा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए मूर्तिकला, स्थापत्य, धर्मगुरुओं से जुड़ी कहानियों, काव्यों आदि अनेक स्रोतों का उपयोग करते हैं। इस उद्देश्य से मूर्तिकला तथा स्थापत्य कला का प्रयोग तभी किया जाता है जब उसके संदर्भ को अच्छी तरह समझा जा सके।


by Sunaina

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