C.B.S.C NCERT Class-12 उपनिवेशवाद और देहात सरकारी अभिलेखों का अध्ययन (COLONIALISM AND COUNTRYSIDE EXPLORING OFFICIAL ARCHIVES)
उपनिवेशवाद और देहात का संक्षिप्त विवरण
औपनिवेशिक शासन सर्वप्रथम बंगाल में स्थापित हुआ था अतः इसी प्रांत में ही सबसे पहले ग्रामीण समाज को पुनः व्यवस्थित करने और भूमि संबंधी अधिकारों की नयी व्यवस्था तथा एक नयी राजस्य प्रणाली लागू करने के प्रयास किए गए।
1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू हुआ था। इसके अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी जो जमींदार निश्चित राजस्व राशि नहीं चुका पाते थे उनसे राजस्व वसूली के लिए उनकी संपदाएँ नीलाम कर दी जाती थीं।
नीलामी में बोली लगाने वाले अधिकतर खरीददार राजा (शक्तिशाली शमदार) के अपने ही आदमी होते थे। वे राजा की ओर से ही ज़मीनों को खरीदते थे। इस प्रकार नीलामी में 95 प्रतिशत से अधिक बिक्री फर्जी होती थी।
इस्तमरारी बंदोबस्त लागू होने के बाद 75 प्रतिशत से अधिक ज़मींदारियाँ बेच दी गई थीं।
1770 के दशक तक बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुधरने लगी थी, क्योंकि बार-बार अकाल पड़ रहे थे और कृषि का उत्पादन कम होता जा रहा था। अंग्रेज अधिकारी ऐसा सोचते थे कि खेती व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधन सब तभी विकसित किए जा सकेंगे, जब कृषि में निवेश को प्रोत्साहन दिया जाएगा। ऐसा तभी हो सकेगा जब संपत्ति के अधिकार प्राप्त कर लिए जाएँगे और राजस्व माँग की दरों को स्थायी बना दिया जाएगा। इसी उद्देश्य से इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया गया था।
अंग्रेज अधिकारियों को यह भी आशा थी कि इस्तमरारी बंदोबस्त से छोटे किसानों (योमन) और धनी भूस्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाएगा जिसके पास कृषि में सुधार करने के लिए पूँजी और उद्यम दोनों ही होंगे। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश शासन का आश्रय और प्रोत्साहन पाकर यह वर्ग कंपनी के प्रति वफादार बना रहेगा।
इस्तमरारी बंदोवस्त बंगाल के राजाओं और ताल्लुकदारों के साथ लागू किया गया। अब उन्हें ज़मींदारों के रूप में वर्गीकृत किया गया। उन्हें सदा के लिए एक निर्धारित राजस्व राशि सरकार को देनी थी।
ज़मींदारों के नीचे अनेक गाँव होते थे। कंपनी के हिसाब से, एक ज़मींदारी के अंतर्गत आने वाले गाँव मिलकर एक राजस्व संपदा का रूप ले लेते थे। कंपनी पूरी संपदा पर कुल माँग निर्धारित करती थी। ज़मींदार उन गाँवो से निर्धारित राजस्व राशि इकट्ठी करता था।
जमींदार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कंपनी को नियमित रूप से राजस्व राशि अदा करेगा। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसकी संपदा नीलाम की जा सकेगी।
इस्तमरारी बंदोबस्त के कुछ दशकों में ज़मींदार अपनी राजस्व राशि चुकाने में असफल रहे, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व की बकाया राशि बढ़ती गई।
राजस्व चुका पाने में जमींदारों की असफलता के कई कारण-
(i) प्रारंभिक राजस्व माँग बहुत ऊँची थी। इसके लिए यह तर्क दिया गया कि ज्यों-ज्यों कृषि के उत्पादन में वृद्धि होती जाएगी और कीमतें बढ़ती जाएँगी, ज़मींदारों का बोझ धीरे-धीरे कम होता जाएगा।
(ii) यह राजस्व माँग 1790 के दशक में लागू की गई थी जब उपज की कीमतें नीची थीं, जिसमें रैयत (किसानों) के लिए, जमींदार को लगान चुका पाना कठिन था। जब जमींदार स्वयं किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर सकता था तो वह आगे कंपनी को अपनी निर्धारित राजस्थ राशि कैसे अदा कर सकता था।
(iii) राजस्व असमान था। फ़सल अच्छी हो या ख़राब राजस्व का ठीक समय पर भुगतान जरूरी था।
कंपनी ज़मींदारों को महत्त्व तो देती थी परंतु वह उन्हें नियंत्रित तथा उनकी स्वायत्तता को सीमित भी करना चाहती थी। इस कारण जमींदारों की सैन्य टुकड़ियों को भंग कर दिया गया,सीमा-शुल्क हटा दिया गया और उनकी कचहरियों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रख दिया गया। जमींदारों से स्थानीय न्याय और स्थानीय पुलिस को व्यवस्था करने की शक्ति भी छीन ली गई।
किसानों से (रैयत) राजस्व इकट्ठा करने के लिए ज़मींदार का एक अधिकारी, जिसे प्रायः अमला कहते थे, गाँव में आता था। परंतु राजस्व वसूली एक समस्या थी। कभी-कभी तो खराब फ़सल और नीची कीमतों के कारण किसानों के लिए लगान का भुगतान कर पाना कठिन हो जाता था। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि रैयत जान-बूझकर भुगतान में देरी कर देते थे।
धनी रैयत और गाँव के मुखिया – जोतदार और मंडल- ज़मींदार को परेशानी में देखकर बहुत प्रसन्न होते थे, क्योंकि जमींदार आसानी से उन पर अपनी सत्ता का प्रयोग नहीं कर सकता था। ज़मींदार बाकीदारों पर मुकदमा तो चला सकता था। परंतु न्यायिक प्रक्रिया लंबी होती थी।
अठारहवीं शताब्दी के अंत में धनी किसानों के कुछ समूह गाँवों में अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे थे। इन किसानों को ‘जोतदार’ कहा जाता था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक जोतदारों ने ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़ों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था।
जोतदारों की ज़मीन का काफ़ी बड़ा भाग बटाईदारों (अधियारों या बरगादारों) द्वारा जोता जाता था, जो स्वयं अपने हल लाते थे, खेत में काम करते थे और फ़सल के बाद उपज का आधा भाग जोतदारों को दे देते थे।
गाँवों में, जोतदारों की शक्ति, जमींदारों की शक्ति से अधिक थी। इसका कारण यह था कि ज़मींदार के विपरीत जो शहरी प्रदेशों में रहते थे, जोतदार गाँवों में ही रहते थे। इस प्रकार ग्रामवासियों के काफ़ी बड़े भाग पर उनका सीधा नियंत्रण रहता था।
जब राजस्व का भुगतान न किए जाने पर ज़मींदार की ज़मींदारी को नीलाम किया जाता था तो प्रायः जोतदार ही उन जमीनों को खरीद लेते थे।
उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक शक्तिशाली थे। बंगाल में कुछ स्थानों पर उन्हें ‘हवलदार’ तथा कुछ अन्य स्थानों पर गाँटीदार (Gantidars) या ‘मंडल’ कहा जाता था।
जमींदार फ़र्जी बिक्री द्वारा ही अपनी ज़मींदारियों पर नियंत्रण बनाए रखते थे। इसके अनुसार नीलामी के समय ज़मींदार के आदमी अथवा एजेंट ही उसकी ओर से जमींदारी खरीद लेते थे।
ज़मींदार कभी भी राजस्व की पूरी राशि नहीं अदा करता था। इसलिए कंपनी विरले ही किसी इकट्ठी हुई बकाया राजस्व की राशियों को वसूल कर पाती थी।
1793 से 1801 के बीच, बंगाल की चार बड़ी ज़मींदारियों ने अनेक बेनामी ख़रीददारियाँ कीं जिनसे कुल मिलाकर ₹ 30 लाख प्राप्त हुए। नीलाम की गई बिक्रियों में से 15 प्रतिशत सौदे नक़ली थे।
ज़मींदार और भी कई तरीकों से अपनी ज़मींदारी को छिनने से बचा लेते थे। जब कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में कोई जमीन खरीद लेता था तो पुराने जमींदार के ‘लठियाल’ नए खरीददार के आदमियों को मारपीट कर भगा देते थे। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि पुराने रैयत नए खरीददार के आदमियों को ज़मीन में घुसने ही नहीं देते थे।
रैयत मानते थे कि पुराना ज़मीदार ही उनका अन्नदाता है और वे उसकी प्रजा हैं। इसलिए ज़मींदारी की बिक्री से उनके स्वाभिमान और गौरव को चोट पहुँचती थी।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में कृषि-उपज की कीमतें बढ़ गई। इसलिए जो ज़मीदार 1790 के दशक के कष्टों को झेलने में सफल रहे थे। उन्होंने अपनी सत्ता को सुदृढ़ बना लिया। राजस्व के भुगतान संबंधी नियमों को भी कुछ लचीला बना दिया गया। फलस्वरूप गाँवों पर ज़मींदार की सत्ता और अधिक मज़बूत हो गई।
1813 में ब्रिटिश संसद में एक रिपोर्ट पेश की गई थी। यह उन रिपोर्टों में से पाँचवीं रिपोर्ट थी जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन तथा क्रियाकलापों के विषय में तैयार की गई थी। इसलिए इसे पाँचवीं रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।
बंगाल में कंपनी के शासन के आरंभ से ही इंग्लैंड में उसके क्रियाकलापों पर बारीकी से नज़र रखी जाने लगी थी। वास्तव में ब्रिटेन में अनेक ऐसे समूह भी थे जो भारत तथा चीन के साथ व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार के विरोधी रहे थे। वे चाहते थे कि उस शाही फरमान को रद्द कर दिया जाए जिसके अनुसार कंपनी को यह एकाधिकार दिया गया था।
ब्रिटेन के उद्योगपति ब्रिटिश माल के लिए भारत का बाज़ार खुलवाने के लिए उत्सुक थे। कई राजनीतिक समूहों का तो यह कहना था कि बंगाल विजय का लाभ केवल ईस्ट इंडिया कंपनी को ही मिल रहा है, संपूर्ण ब्रिटिश राष्ट्र को नहीं।
ब्रिटिश संसद ने भारत में कंपनी के शासन को नियमित एवं नियंत्रित करने के लिए अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अनेक अधिनियम पारित किए। कंपनी को विवश किया गया कि वह भारत के प्रशासन के बारे में नियमित रूप से अपनी रिपोर्ट ब्रिटिश संसद को भेजे।
‘पाँचवीं रिपोर्ट’ एक ऐसी रिपोर्ट थी जो एक प्रवर समिति ने तैयार की थी। यह रिपोर्ट भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के स्वरूप पर ब्रिटिश संसद में गंभीर वाद-विवाद का आधार बनाई गई थी।
कुछ शोधों से पता चलता है कि पाँचवीं रिपोर्ट लिखने वाले कंपनी के प्रशासन को आलोचना करने पर तुले हुए थे। इसलिए पाँचवीं रिपोर्ट में परंपरागत ज़मींदारी सत्ता के पतन का वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया था। उसके अनुसार ये पहाड़ियाँ अभेद्य लगती थीं। यह एक ऐसा ख़तरनाक प्रदेश था जहाँ बहुत कम यात्री जाने का साहस करते थे।
बुकानन जहाँ कहीं भी गया, वहाँ उसने लोगों के व्यवहार को शत्रुतापूर्ण पाया। वे लोग कंपनी के अधिकारियों के प्रति आशंकित थे और उनसे बातचीत करने से कतराते थे।
राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों को पहाड़िया कहा जाता था। वे जंगल की उपज से अपना निर्वाह करते थे और झूम खेती किया करते थे।
जंगलों से पहाड़िया लोग खाने के लिए महुआ के फूल इकट्ठे करते थे। बेचने के लिए वे रेशम के कोया और राल तथा काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करते थे।
शिकारियों, झूम खेती करने वालों, खाद्य-पदार्थ इकट्ठे करने वालों, काठकोयला बनाने वालों, रेशम के कीड़े पालने वालों के रूप में पहाड़िया लोगों का जीवन जंगल से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था।
पहाड़िया पूरे प्रदेश को अपनी निजी भूमि मानते थे और वहाँ बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया अपने समूह में एकता बनाए रखते थे और आपसी लड़ाई-झगड़े निपटाते थे।
पहाड़िया लोग उन मैदानों पर आक्रमण करते रहते थे जहाँ खेती-बाड़ी किया करते थे। पहाड़ियों द्वारा ये आक्रमण अधिकतर अपने आपको विशेष रूप से अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे। इसके अतिरिक्त इन हमलों द्वारा के मैदानों में बसे हुए समुदायों पर अपनी शक्ति को दिखाते थे। ऐसे आक्रमण बाहरी लोगों के साथ अपने राजनीतिक संबंध बनाने के लिए भी किए जाते थे।
मैदानों में रहने वाले ज़मीदारों को प्रायः इन पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप में खिराज देकर अपनी सुरक्षा करनी पड़ती थी। इसी प्रकार,व्यापारी लोग भी इन पहाड़ियों द्वारा नियंत्रित रास्तों का प्रयोग करने के लिए उन्हें कुछ पथकर दिया करते थे।
अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में पूर्वी भारत में स्थायी खेती को बढ़ाया जाने लगा। अतः अंग्रेजों ने जंगलों को कटाई-सफाई के काम को प्रोत्साहित किया और ज़मीदारों एवं जोतदारों ने परती भूमि को धान के खेतों में बदल दिया।
अंग्रेजो के लिए स्थायी कृषि का विस्तार इसलिए आवश्यक था क्योंकि इससे राजस्व के स्रोतों में वृद्धि हो सकती थी, निर्यात के लिए फसल पैदा को जा सकती थी और एक सुव्यवस्थित समाज की स्थापना की जा सकती थी।
स्थायी कृषि के विस्तार के साथ-साथ जंगलों तथा चरागाहों का क्षेत्र संकुचित होता गया। इससे पहाड़ो लोगों तथा स्थायी खेतीहरों के बीच झगड़े तेज हो गए। पहाड़ी लोग नियमित रूप से बसे गाँवों पर पहले से अधिक हमले करने लगे और ग्रामवासियों से अनाज और पशु छीन-झपटकर ले जाने लगे। औपनिवेशिक अधिकारियों ने इन पहाड़ियों पर काबू पाने का भरसक प्रयास किया। परंतु उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं था।
1770 के दशक में ब्रिटिश अधिकारियों ने पहाड़ियों को निर्मूल कर देने की क्रूर नीति अपना ली। तत्पश्चात 1780 के दशक में भागलपुर के कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड ने शांति स्थापना की नीति अपनाई। इसके अनुसार पहाड़िया मुखियाओं को एक वार्षिक भत्ता दिया जाना था। बदले में उन्हें अपने आदमियों को नियंत्रित करने को जिम्मेदारी लेनी थी। परंतु बहुत-से पहाड़िया मुखियाओं ने भत्ता लेने से इनकार कर दिया। जिन्होंने इसे स्वीकार किया उनमें से अधिकांश अपने समुदाय में अपनी सत्ता खो बैठे।
1810-11 में राजमहल के पहाड़ी क्षेत्र में संथाल लोगों का आगमन हुआ। ये लोग वहाँ के जंगलों का सफ़ाया कर रहे थे तथा इमारती लकड़ी काट रहे थे। वे वहाँ की ज़मीन जोत
कर चावल तथा कपास उगाने लगे थे। चूँकि संथालों ने निचली पहाड़ियों पर अपना अधिकार जमा लिया था इसलिए पहाड़ी लोगों को राजमहल की पहाड़ियों में और भी पीछे हटना पड़ा।
संथालों 1780 के दशक के आस-पास बंगाल में आने लगे थे। ज़मींदार लोग खेती के लिए नयो भूमि तैयार करने और कृषि का विस्तार करने के लिए उन्हें भाड़े पर रखते थे। ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें दंगल महालों में बसने का निमंत्रण दिया।
पहाड़िया लोग जंगल काटने के लिए हल का प्रयोग करने को तैयार नहीं थे और अब भी उपद्रवी व्यवहार करते थे। इसके विपरीत, संथाल आदर्श बाशिंदे दिखाई देते थे क्योंकि उन्हें जंगलों का सफाया करने में कोई संकोच नहीं था। वे भूमि को पूरी ताकत से जोतते थे।
संथालों को ज़मीन देकर राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया गया। 1832 तक एक बहुत बड़े भू-भाग का दामिन-इ-कोह के रूप में सीमांकित कर दिया गया और इसे संथालों को भूमि घोषित कर दिया गया।
दामिन-इ-कोह के सीमांकन के बाद, संथालों की बस्तियों का विस्तार बड़ी तेठी से हुआ। संथालों के गाँवों की संख्या को 1838 में 40 थी, 1851 में 1,473 तक पहुँच गई। संथालों द्वारा खेती के विस्तार से कंपनी को राजस्व राशि में भारी वृद्धि हुई।
पहाड़ियों को धीरे-धीरे राजमहल की पहाड़ियों में भीतर की ओर चले जाने के लिए विवश कर दिया गया। उन्हें निचली पहाड़ियों तथा घाटियों में नीचे की ओर जाने से रोक दिया गया। अतः वे ऊपरी पहाड़ियों के चट्टानी एवं अधिक बंजर प्रदेशों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित होकर रह गए। इसका उनके रहन-सहन तथा जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा। अतः वे गरीब हो गए।
संथाल लोग अपनी खानाबदोश जिंदगी को छोड़ एक स्थान पर बस गए थे। वे बाजार के लिए कई प्रकार को वाणिज्यिक फसलें उगाने लगे थे और व्यापारियों तथा साहूकारों के साथ लेन-देन करने लगे थे।
धीरे-धीरे संथालों को यह बात समझ में आने लगी कि उन्होंने जिस भूमि पर खेती करना शुरू की थी वह उनके हाथों से निकलती जा रही है। इसका कारण यह था कि संथालों ने जिस ज़मीन को साफ करके खेती शुरू की थी उस पर सरकार (राज्य) भारी कर लगा रही थी। दूसरी ओर साहूकार (दिकू) बहुत ऊँची दर पर ब्याज लगा रहे थे और कर्ज अदा न किए जाने की स्थिति में जमीन पर कब्ज़ा कर रहे थे। यही नहीं ज़मींदार लोग दामिन प्रदेश पर भी अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे। अतः 1850 के दशक में संथालों ने विद्रोह कर दिया। संथाल, ब्रिटिश राज के सिपाहियों से युद्ध करते हुए 23 फरवरी, 1856 के इलस्ट्रेटेड लंडन न्युज़ में प्रकाशित हुए।
विद्रोह के बाद संथाल परगने का निर्माण कर दिया गया। इसके लिए 5,500 वर्गमील का क्षेत्र भागलपुर तथा बीरभूम जिलों में से लिया गया। औपनिवेशिक राज को आशा थी कि संथालों के लिए नया परगना बनाने और उसमें कुछ विशेष कानून लागू करने से संथाल संतुष्ट हो जाएँगे।
जब कंपनी ने अपनी शक्ति को मज़बूत कर लिया और अपने व्यवसाय का विकास कर लिया तो वह उन प्राकृतिक साधनों की खोज में जुट गई जिन पर अधिकार करके वह उनका मनचाहा उपयोग कर सकती थी। उसने राजस्व लोगों का सर्वेक्षण किया, खोज यात्राएँ आयोजित कीं, और जानकारी एकत्र करने के लिए अपने भूविज्ञानियों, भूगोलवेत्ताओं, वनस्पति विज्ञानियों और चिकित्सकों को भेजा। असाधारण प्रेक्षण शक्ति का धनी बुकानन ऐसा ही एक व्यक्ति था।
प्रगति के संबंध में बुकानन का आकलन आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा से निर्धारित होता था। वह निश्चित रूप से वनवासियों की जीवन-शैली का आलोचक था और यह महसूस करता था कि वनों को कृषि भूमि में बदलना ही होगा।
उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान,भारत के विभिन्न प्रांतों के किसानों ने साहूकारों और अनाज के व्यापारियों के विरुद्ध अनेक विद्रोह किए। ऐसा ही एक विद्रोह 1875 में दक्कन में आरंभ हुआ। यह आंदोलन पूना से अहमदाबाद में फैल गया। साहूकारों पर हमला किया गया, बही-खाते जला दिए गए और ऋणबंध नष्ट कर दिए गए। किसानों के हमलों से घबराकर साहूकार गाँव छोड़कर भाग गए। अधिकतर साहूकार अपनी संपत्ति और धन-दौलत भी वहीं पीछे छोड़ गए।
1810 के बाद खेती की कीमतें बढ़ गई। इससे उपज के मूल्य में वृद्धि हुई। फलस्वरूप बंगाल के ज़मींदारों की आय में विस्तार हुआ। चूंकि राजस्व की माँग इस्तमरारी बंदोबस्त के अंतर्गत निर्धारित की गई थी, इसलिए औपनिवेशिक सरकार इस बढ़ी हुई आय में से हिस्सा नहीं माँग सकती थी। इसलिए उन्नीसवीं शताब्दी में औपनिवेशिक शासन में शामिल किए गए प्रदेशों में नए राजस्व बंदोबस्त लागू किए गए।
बंबई दक्कन में रैयतवाड़ी राजस्व प्रणाली लागू की गई। स्थायी बंदोबस्त के विपरीत, इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व की राशि सीधे किसानों के साथ तय की जाती थी।
बंबई दक्कन में पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 के दशक में किया गया। राजस्व की माँग इतनी अधिक थी कि अनेक स्थानों पर किसान अपने गाँव छोड़कर नए क्षेत्रों में चले गए। उन प्रदेशों में समस्या और गंभीर थी जहाँ जमीन घटिया किस्म की थी और वर्षा भी कम होती थी।
1832 के बाद कृिष उत्पादों की कीमतों में तेजी से गिरावट आई और लगभग डेढ़ दशक तक इस स्िथित में कोई परिवर्तन नहीं आया। परिणामस्वरूप िकसानों की आय में और भी गिरावट आ गई।
1832-34 के वर्षों में देहाती इलाके अकाल की चपेट में आकर बरबाद हो गए। दक्कन का एक-ितहाई पशुधन मौत के मुँह में चला गया और आधी आबादी भी मौत का िशकार हो गई। जो बचे, उनके पास भी उस संकट का सामना करने के लिए खाद्यान्न नहीं था। राजस्व की बकाया रािशयाँ आसमान को छूने लगीं। परिणाम स्वरूप
किसानों को ऋण लेने पडे़ जिन्हें चुका पाना उनके लिए कठिन हो गया।
1860 के दशक से पहले, ब्रिटेन में कच्चे माल के रूप में आयात की जाने वाली कपास का तीन-चौथाई भाग अमेरिका से आता था। भारत को एक ऐसा देश माना गया जो अमेरिका से कपास की आपूर्ति बंद हो जाने की दशा में, लंकाशायर को कपास दे सकता था। भारत की भूमि और जलवायु दोनों ही कारक कपास की खेती के लिए उपयुक्त और यहाँ सस्ता श्रम भी उपलब्ध था।
1861 में अमेरिकी गृहयुद्ध छिड़ जाने पर ब्रिटेन के कपास क्षेत्र (मंदी तथा कारखानों) में तहलका मच गया। अतः बंबई के कपास निर्यातकों ने ब्रिटेन की माँग को पूरा करने के लिए अधिक-से-अधिक कपास खरीदने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने शहरी साहूकारों को अधिक-से-अधिक अग्रिम राशियाँ दी ताकि ये उन ग्रामीण ऋणदाताओं को, जिन्होंने कपास उपलब्ध कराने का वचन दिया था, अधिक-से-अधिक धनराशि उधार दे सकें। जब बाजार में तेजी आती है तो ऋण आसानी से मिल जाता है क्योंकि ऋणदाता उधार दी गई राशि की वसूली के प्रति अधिक आश्वस्त होता है। इस बात का दक्कन के देहाती इलाकों पर काफी प्रभाव पड़ा दक्कन के गाँवों के रैयतों को अचानक असीमित ऋण उपलब्ध होने लगा। उन्हें कपास उगाने वाली प्रत्येक एकड़ भूमि के लिए, ₹ 100 अग्रिम राशि दी जाने लगी। साहूकार भी लंबी अवधि के ऋण देने के लिए हर समय तैयार रहते थे।
जब तक अमेरिका में कपास के संकट की स्थिति बनी रहीं तब तक बंबई दक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता रहा। 1860 से 1864 के दौरान कपास उगाने वाला क्षेत्र दोगुना हो गया। 1862 तक स्थिति यह आ गई कि ब्रिटेन के कुल कपास का आयात 90 प्रतिशत भाग अकेले भारत से जाता था। परंतु इन तेजी के वर्षों में भी सभी कपास उत्पादकों को समृद्धि प्राप्त नहीं हो सकी। कुछ धनी किसानों को तो लाभ अवश्य हुआ। परंतु अधिकांश किसान ऋण के बोझ से और अधिक दब गए।
कपास के व्यापार में तेजी आने पर भारत के कपास व्यापारी, अमेरिका को स्थायी रूप से विस्थापित करके कच्ची कपास के विश्व बाज़ार को अपने अधीन करने के सपने देखने लगे। परंतु 1865 तक स्थिति बदल गई। अमेरिका में गृह युद्ध समाप्त हो गया और वहाँ कपास का फिर से उत्पादन होने लगा। फलस्वरूप ब्रिटेन के भारतीय कपास के निर्यात में गिरावट आती चली गई।
कपास के निर्यात ने गिरावट आने पर महाराष्ट्र में निर्यात व्यापारी और साहूकार लंबी अवधि के ऋण देने के लिए उत्सुक नहीं रहे। ऋणदाता द्वारा ऋण देने से इनकार करने पर, रैयत समुदाय को बहुत क्रोध आया। ये इस बात के लिए ही क्रुद्ध नहीं थे कि वे ऋण के गर्त में धसते जा रहे हैं अथवा कि वे अपने जीवन-यापन के लिए पूर्ण रूप से ऋणदाता पर निर्भर हैं, बल्कि वे इस बात से अधिक क्रोधित थे कि ऋणदाता वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनकी दशा पर कोई तरस नहीं खा रहा है।
ऋण देने का व्यवसाय औपनिवेशिक शासन से पहले भी काफ़ी फैला हुआ था और ऋणदाता प्रायः काफी शक्तिशाली व्यक्ति होते थे। कई प्रकार के मानक ऋणदाता और रैयत के आपसी संबंधों पर लागू होते थे और उन्हें नियमित करते थे। एक सामान्य मानक यह था कि ब्याज मूलधन से अधिक नहीं होगा।
किसान ऋणदाता की कुटिलता और धोखेबाजी को समझने लगे थे। उनकी शिकायत थी कि ऋणदाती खातों में हेराफेरी करते हैं और कानून की आँखों में धूल झोंकते हैं। 1859 में अंग्रेजों ने एक परिसीमन कानून पारित किया। इसमें यह कहा गया कि ऋणदाता और रैयत के बीच हस्ताक्षरित ऋणपत्र केवल तीन वर्षों के लिए ही मान्य होगा। इस कानून का उद्देश्य ब्याज को लंबे समय तक संचित होने से रोकना था। परंतु ऋणदाता ने इस कानून को घुमा-फिराकर अपने पक्ष में कर लिया।
by Sunaina
- Motivation : बेटी को दहेज देकर असुरक्षा और बेटे को प्रोपटी देकर सुरक्षा दी | Giving Dowry To The Daughter Created Insecurity And Giving Property To The Son Provided Security
- Motivation : बिना माँगे सलाह न दें, लोग आपको मूर्ख समझते हैं | Don’t Give Advice Without Being Asked, People Think You Are A Fool
- Motivation : पिता बच्चों के प्रति स्नेह क्यों नहीं जताते? | Why do Fathers In India Not Show Affection Towards Their Children?
- Motivation : करियर नहीं बना, शादी की उम्र निकली जा रही है क्या करें? | What should I do?
- Motivation : बच्चों को इतना कबिल बनाना चाहिए | Children Should Be Made This Capable.